Tuesday, April 12, 2022

Vaisakhi

 Vaisakhi- 14 April 2022 

Harvest Festival

Vaisakhi is usually celebrated on April 13 or 14 every year. 

The festival of Baisakhi is celebrated to mark the onset of spring in India

The time of Baisakhi usually signifies the end of the harvest season, and is an occasion of tremendous joy and festivity for farmers. The celebrations are concentrated in the states of Punjab and Haryana.

It marks the Sikh new year and commemorates the formation of Khalsa panth of warriors under Guru Gobind Singh in 1699

Vaisakhi is also an ancient festival of Hindus, marking the Solar New Year and also celebrating the spring harvest.

Vaisakhi festival is basically a festival of agriculture. In the northern region of India specially in Punjab, when crops grow all green, and swing in breeze, and Rabi crop is ready, then in order to thank nature, farmers perform dance and sing songs.

On the eve of Baisakhi, Sikhs participate in Nagar Kirtans and spend their day paying their respects to the Khalsa. People also recite the sacred hymns, sing songs, and pay tribute to the Guru Granth Sahib which is the holy book of the Sikhs.

Celebrated among the Hindus and Sikhs, Vaisakhi is a spring harvest festival that's celebrated on the 13th or 14th of April (Gregorian calendar) every year.

Commonly prepared dishes during Baisakhi:
  • Kadhi. Traditional kadhi with besan pakodas dunked in a thick gravy of yogurt is a delightful dish to pair with rice
  • Meethe Peeley Chawal. Sweet rice is another delicacy prepared during Baisakhi
  • Kesar Phirni
  • Mango Lassi
  • Kada Prasad (Atta Halwa)


6 comments:

  1. name- Vedansh
    class- 9th/A
    roll no.- 21
    1st shift

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  2. फसलों की कटाई के पर्व बैशाखी के दिन जब सारा पंजाब माटी और ममता से ओतप्रोत उल्लास और उत्सव में निमग्न था तो जलियाँवाला बाग अमृतसर में लगे बैशाखी के मेले में जनरल डायर ने अंधाधुंध फायरिंग करवाई और निहत्थे नर नारी वृद्ध बच्चों की निर्मम नृशंस हत्या करवाई.....आज हम उन हुतात्माओं को श्रद्धांजलि देते हैं। देश के लिए जान दिया रक्त दिया तब हम आज अपना जीवन और उल्लास मना रहे हैं।🙇‍♂️💐💐

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  3. NAME- Anshika
    CLASS- 8C
    ROLL NO- 13

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  4. ऐसा माना जाता है कि जब मुगल शासनकाल के दौरान बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। उस समय सिख धर्म के गुरु गोबिन्द सिंह ने बैसाखी पर्व पर आनंदपुर साहिब के विशाल मैदान में सिख समुदाय को आमंत्रित किया।मैदान में गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तंबू लगाया गया। जब गुरु गोबिंद सिंह लोगों से मिले, उस समय गुरु उनके दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी। गुरुदेव नंगी तलवार लिए मंच पर पहुंचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है?गुरुदेव की बात सुनते ही वहां मौजूद सभी सिख आश्चर्यचकित रह गए और सन्नाटा छा गया। उसी समय दयासिंह (अथवा दयाराम) नामक एक व्यक्ति आगे आया, जो लाहौर का रहनेवाला था। वह बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तंबू में ले गए। कुछ देर बाद तंबू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में सन्नाटा छा गया।गुरुदेव तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी प्यासी है। इस बार धर्मदास (उर्फ़ धरम सिंह) आगे आए, जो सहारनपुर के जवाडा गांव के निवासी थे। गुरुदेव उन्हें भी तंबू में ले गए और पहले की तरह इस बार भी थोड़ी देर में खून की धारा बाहर निकलने लगी।बाहर आकर गोबिन्द सिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की मांग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय (उर्फ़ हिम्मत सिंह) खड़े हुए। गुरुजी उन्हें भी तंबू में ले गए और फिर से तम्बू से खून धारा बाहर आने लगी। गुरुदेव पुनः बाहर आए और एक और सिर की मांग की तब द्वारका के युवक मोहकम चंद (उर्फ़ मोहकम सिंह) आगे आए।इसी तरह पांचवी बार फिर गुरुदेव द्वारा सिर मांगने पर बीदर निवासी साहिब चंद सिर देने के लिए आगे आए। मैदान में इतने सिखों के होने के बाद भी वहां सन्नाटा पसर गया, सभी एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तंबू से गुरु गोबिंद सिंह के साथ केसरिया बाना पहने 5 सिख नौजवान बाहर आए। पांचों नौजवान वहीं थे जिनके सिर काटने के लिए गोबिंद सिंह तंबू में ले गए थे।गुरुदेव और पांचों नौजवान मंच पर आए, गुरुदेव तख्त पर बैठ गए। पांचों नौजवानों ने कहां गुरुदेव हमारे सिर काटने के लिए हमें तंबू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिखों से कहा, आज से ये पांचों मेरे पंज प्यारे हैं। इस तरह सिक्ख धर्म को पंज प्यारे मिल गए, जिन्होंने बाद में अपनी निष्ठा और समर्पण भाव से खालसा पंथ का जन्म दिया।

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